पिछले 55 दिनों से आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल आखिरकार चिकित्सा सहायता लेने के लिए राजी हो गए हैं। श्री डल्लेवाल ने यह मंजूरी तब दी जब केंद्र सरकार ने जानकारी दी कि आगामी 14 फरवरी को चंडीगढ़ में किसानों से वह बातचीत करेगी। हालांकि जगजीत सिंह डल्लेवाल अब भी इस बात पर अडिग हैं कि वह मांगें पूरी होने तक अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। पिछले 11 महीनों से आंदोलन पर बैठे संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा के प्रतिनिधियों से केंद्रीय कृषि मंत्रालय के संयुक्त सचिव प्रिय रंजन के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने मुलाकात की। बैठक के ऐलान के बाद किसान नेताओं ने डल्लेवाल से अनुरोध किया कि वे चिकित्सा सहायता लें ताकि वे इस प्रस्तावित बैठक में हिस्सा ले सकें। श्री डल्लेवाल का स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा है और इस पर अदालत भी चिंता जतला चुकी है, लेकिन सरकार इस बारे में सही में कितनी फिक्रमंद है, यह विचारणीय है। पिछले साल 13 फरवरी से शंभू और खनौरी सीमा पर आंदोलनकारी किसान डेरा डाले हुए हैं, क्योंकि सुरक्षा बलों ने उन्हें अपनी फसलों के लिए कानूनी एमएसपी गारंटी सहित विभिन्न मांगों को लेकर दिल्ली तक मार्च करने की अनुमति नहीं दी थी। पिछले साल 8, 12, 15 और 18 फरवरी को केंद्रीय मंत्रियों और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच चार दौर की बैठकें हुई थीं, जो बेनतीजा रही थी। अब एक लंबे अंतराल के बाद फिर से किसानों के साथ बैठक प्रस्तावित हुई है, जिसका क्या नतीजा निकलेगा इस बारे में कुछ भी कहना कठिन है।
पिछले अनुभव तो यही बताते हैं कि सरकार हद दर्जे की हठधर्मिता दिखाती है। वह हर हाल में किसानों को मजबूर और लाचार बनाकर झुकाना चाहती है। इससे पहले जब 2020-21 में किसानों ने ऐसा ही लंबा आंदोलन किया था, तो आखिर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर तीनों कृषि कानून वापस लिए थे कि मेरी तपस्या में कोई कमी रह गई, जो मैं समझा नहीं पाया। यानी यहां भी सरकार ने अपनी गलती नहीं मानी, केवल यह स्वीकार किया था कि किसान कृषि कानूनों की उपयोगिता नहीं समझ सके। किसान तब कृषि कानूनों को वापस लेने के साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य अपनी फसलों के लिए मांग रहे थे, अब भी उनकी मांग वही है। लेकिन सरकार के तर्क भी वही हैं कि इससे सरकारी कोष पर भार बढ़ेगा। आश्चर्य यह है कि जब सरकार आठवां वेतन आयोग के गठन की मंजूरी देती है, तब उसे इस वित्तीय भार की चिंता नहीं होती।
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी गुरुवार को केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन और पेंशनभोगियों के भत्तों में संशोधन के लिए आठवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दी है। सरकार के इस फैसले से लगभग 50 लाख केन्द्रीय कर्मियों को लाभ होगा, साथ ही लगभग 65 लाख पेंशनधारकों की पेंशन में भी बढ़ोतरी होगी। अकेले दिल्ली में ही लगभग चार लाख कर्मचारियों को लाभ होगा, इनमें रक्षा और दिल्ली सरकार के कर्मचारी शामिल हैं। दिल्ली में अगले महीने की शुरुआत में ही चुनाव होने हैं, जिसमें भाजपा उम्मीद लगा कर बैठी है कि उसका 26 सालों का वनवास खत्म होगा और उसे दिल्ली की सत्ता भी मिलेगी। हालांकि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की तगड़ी तैयारियों के आगे भाजपा के लिए सत्ता हासिल करना कठिन चुनौती है। भाजपा की मुश्किल आसान करने के लिए ही शायद मोदी सरकार ने आठवें वेतन आयोग के गठन का फैसला लिया, ताकि दिल्ली में सरकारी कर्मचारियों की एक बड़ी आबादी के वोट उसके लिए सुनिश्चित हो जाएं।
जानकारी के मुताबिक, आठवें वेतन आयोग में न्यूनतम आधार वेतन को बढ़ाकर 34,650 रुपये किया जा सकता है, जो कि सातवें वेतन आयोग में 17,990 रुपये है। वहीं, पेंशन को 9,000 रुपये से बढ़ाकर 17,280 रुपये किया जा सकता है। हालांकि, ये सिर्फ संभावना है, अगले साल 2026 में जब आठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होंगी, तब असल आंकड़े सामने आएंगे। पाठकों को बता दें कि सातवें वेतन आयोग का गठन 2014 में किया गया था और इसकी सिफारिशें एक जनवरी, 2016 से लागू हुई थीं, जो 2026 में समाप्त हो रही हैं। सातवें वेतन आयोग के तहत वित्त वर्ष 2016-17 में खर्च में एक लाख करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई थी। आठवें वेतन आयोग से सरकार पर करीब दो लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ने का अनुमान है।
सरकारी कर्मचारियों ने वेतन या पेंशन बढ़ाने के लिए कोई आंदोलन नहीं किया, सड़कों पर दिन-रात नहीं बैठे, अपनी रोजी-रोटी दांव पर नहीं लगाई, फिर भी सरकार ने चलन के अनुसार हर दस साल में वेतन आयोग गठित करने की परिपाटी का पालन किया और वेतन बढ़ाने का रास्ता साफ कर दिया। अच्छी बात है कि जिन लोगों की वजह से सरकार का कामकाज सुचारू चलता है और देश में व्यवस्था बने रहती है, उनके हक का ध्यान सरकार ने रखा। लेकिन क्या सरकार का यही रवैया किसानों के प्रति भी नहीं होना चाहिए। किसान भी तो दिन-रात, सभी मौसमों में काम करके देश के लिए अनाज उगाते हैं। और वे अपनी मेहनत के बदले अनाप-शनाप मांग भी नहीं करते, केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य चाहते हैं ताकि उनकी लागत वसूल हो सके और नयी फसल उगाने के लिए वे खाद-पानी-बीज की अच्छी व्यवस्था कर सकें।
यह कोई बेजा मांग नहीं है, जिसे सरकार लगातार अनसुना कर रही है। 2021 के आंदोलन के बाद एमएसपी के लिए सरकार ने एक समिति गठित की थी। उस समिति की रिपोर्ट आज तक नहीं आई है। अब फिर से पिछले 11 महीनों से एक नया आंदोलन शुरु हुआ है और उसकी तरफ भी सरकार का रवैया बेरुखा ही रहा है। यह रवैया चुनावों के वक्त जरूर उदार हो जाता है। छत्तीसगढ़ और ओडिशा में धान की खरीद 2300 रुपये प्रति क्विंटल के एमएसपी की बजाय 3100 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर करना मुमकिन हो गया था, क्योंकि वहां चुनाव में लाभ लेना था। लेकिन सवाल यह है कि जो काम दो राज्यों में हो सकता है, वो बाकी जगहों पर क्यों संभव नहीं है।
देश में करीब 14.6 करोड़ किसान हैं। सरकार प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत लगभग 9 करोड़ किसानों को सालाना छह हजार रुपये की सहायता देती है। लेकिन खैरात की तरह साल के छह हजार रूपए देने की जगह अगर एमएसपी की मांग सरकार पूरी करे तो किसानों का आत्मसम्मान बचेगा, उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा, देश में कृषि का विकास होगा और इन सबसे आखिर में देश की आर्थिक व्यवस्था को ही मजबूती मिलेगी। चुनावी गुणा-भाग करने की माहिर सरकार इतना सीधा सा हिसाब क्यों नहीं लगा पा रही है।